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त्रि॒पा॒ज॒स्यो वृ॑ष॒भो वि॒श्वरू॑प उ॒त त्र्यु॒धा पु॑रु॒ध प्र॒जावा॑न्। त्र्य॒नी॒कः प॑त्यते॒ माहि॑नावा॒न्त्स रे॑तो॒धा वृ॑ष॒भः शश्व॑तीनाम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tripājasyo vṛṣabho viśvarūpa uta tryudhā purudha prajāvān | tryanīkaḥ patyate māhināvān sa retodhā vṛṣabhaḥ śaśvatīnām ||

पद पाठ

त्रि॒ऽपा॒ज॒स्यः। वृ॒ष॒भः। वि॒श्वऽरू॑पः। उ॒त। त्रि॒ऽउ॒धा। पु॒रु॒ध। प्र॒जाऽवा॑न्। त्रि॒ऽअ॒नी॒कः। प॒त्य॒ते॒। माहि॑नऽवा॒न्। सः। रे॒तः॒ऽधा। वृ॒ष॒भः। शश्व॑तीनाम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:56» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुरुध) बहुतों को धारण करनेवाले विद्वान् पुरुष जो (त्रिपाजस्यः) तीन शरीर आत्मा और सम्बन्धियों के बलों में निपुण (वृषभः) वृष्टिकर्त्ता (त्र्युधा) जिसमें तीन अर्थात् कारण, सूक्ष्म और स्थूल बढ़े हुए जीव शरीर और (विश्वरूपः) अन्य संपूर्ण रूप जिसमें विद्यमान जो बिजुली के सदृश (उत) और (प्रजावान्) बहुत प्रजाजन (त्र्यनीकः) तथा त्रिगुणित सेनायुक्त के समान (माहिनावान्) बहुत सत्कारवान् है वा (पत्यते) जो स्वामी के सदृश आचरण करता (सः) वह (वृषभः) अत्यन्त बलयुक्त (शश्वतीनाम्) अनादिकाल से हुई प्रकृति और जीवनामक प्रजाओं का (रेतोधाः) जल के सदृश वीर्य को धारण करनेवाले सूर्य के सदृश वीर्य का देनेवाला जगदीश्वर है, ऐसा जानो ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो जगदीश्वर बिजुली के सदृश सब जगह व्यापक होके प्रकाशकर्त्ता धारणकर्त्ता फिर भी न्यायाधीश स्वामी अनन्त महिमा से युक्त और अनादि जीवों का न्यायाधीश वर्त्तमान है, उससे डरके और पापों का त्याग करके प्रीति से धर्म का आचरण कर अपने अन्तःकरण में सब लोग उसी का ध्यान करें ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे पुरुध विद्वन् यस्त्रिपाजस्यो वृषभस्त्र्युधा विश्वरूपो विद्युदिव उतापि प्रजावाँस्त्र्यनीक इव माहिनावान् पत्यते स वृषभश्शश्वतीनां रेतोधाः सूर्यइव वीर्यप्रदोऽस्तीति विजानीहि ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्रिपाजस्यः) त्रिषु शरीरात्मसम्बन्धिबलेषु साधुः (वृषभः) वर्षकः (विश्वरूपः) विश्वमखिलं रूपं यस्मिन् यस्माद्वा सः (उत) अपि (त्र्युधा) त्रीणि कारणसूक्ष्मस्थूलान्यूधांसि यस्मिन् सः। अत्र वर्णव्यत्ययेन ह्रस्वः। (पुरुध) यः पुरून् बहून् दधाति तत्संबुद्धौ (प्रजावान्) बह्व्यः प्रजा विद्यन्ते यस्य सः (त्र्यनीकः) त्रीणि त्रिगुणान्यनीकानि सैन्यानि यस्य सः (सः) (पत्यते) पतिरिवाचरति (माहिनावान्) बहूनि माहिनानि सत्करणानि विद्यन्ते यस्यः सः (सः) (रेतोधाः) यो रेत उदकमिव वीर्यं दधाति सः (वृषभः) अनन्तबलः (शश्वतीनाम्) अनादिभूतानां प्रकृतिजीवाख्यानां प्रजानाम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो जगदीश्वरो विद्युद्वत्सर्वत्राऽभिव्याप्य प्रकाशको धर्त्ता उतापि न्यायाधीशस्स्वाम्यनन्तमहिमयुक्तोऽनादिभूतानां न्यायाधीशो वर्त्तते तस्माद् भीत्वा पापानि त्यक्त्वा प्रीत्या धर्ममाचर्य तमेव स्वान्ते सर्वे समादधीरन् ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो जगदीश्वर विद्युतप्रमाणे सर्व स्थानी व्यापक असून प्रकाशकर्ता, धारणकर्ता, न्यायाधीश, स्वामी, अनंत महिमायुक्त व अनादी जीवांचा न्यायाधीश आहे. त्याला भिऊन, पापाचा त्याग करून प्रीतीने धर्माचे आचरण करून आपल्या अंतःकरणात सर्व लोकांनी त्याचे ध्यान करावे. ॥ ३ ॥